उम्र भर ख़ाली यूँ हि दिल का मकाँ रहने दिया
तुम गये तो दूसरे को कब यहाँ रहने दिया
उम्र भर उसने भी मुझ से मेरा दुख पूछा नहीं
मैंने भी ख्वाहिश को अपनी बेज़बाँ रहने दिया
उसने जब भी सौँप दी है जिस्म कि उजली किताब
मैंने कुछ औराक़ उलटे कुछ को, हाँ रहने दिया
मैंने कल शब चाहतों कि सब क़िताबें फ़ाड़ दीं
सिर्फ इक कागज़ पे लिक्खा लफ़्ज़े-माँ रहने दिया