Ahmed Faraz Ghazal – ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई


ग़म-ए-हयात का झगड़ा मिटा रहा है कोई
चले आओ के दुनिया से जा रहा है कोई

कोई अज़ल से कह दो, रुक जाये दो घड़ी
सुना है आने का वादा निभा रहा है कोई

वो इस नाज़ से बैठे हैं लाश के पास
जैसे रूठे हुए को मना रहा है कोई

पलट कर न आ जाये फ़िर सांस नब्ज़ों में
इतने हसीन हाथो से मय्यत सजा रहा है कोई

Ahmed Faraz Ghazal – ये आलम शौक़ का देखा न जाए

ये आलम शौक़ का देखा न जाए
वो बुत है या ख़ुदा देखा न जाए

ये किन नज़रों से तूने आज देखा
कि तेरा देखना देखा न जाए

हमेशा के लिए मुझसे बिछड़ जा
ये मंज़र बारहा देखा न जाए

ग़लत है जो सुना, पर आज़मा कर
तुझे ए बेवफ़ा देखा न जाए

ये महरूमी नहीं पास-ए-वफ़ा है
कोई तेरे सिवा देखा न जाए

यही तो आशना बनते हैं आख़िर
कोई ना-आशना देखा न जाए

ये मेरे साथ कैसी रौशनी है
कि मुझसे रास्ता देखा न जाए

‘फ़राज़’ अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा न जाए

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Ahmed Faraz Ghazal – तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं

तुझसे मिलने को कभी हम जो मचल जाते हैं
तो ख़्यालों में बहुत दूर निकल जाते हैं

गर वफ़ाओं में सदाक़त भी हो और शिद्दत भी
फिर तो एहसास से पत्थर भी पिघल जाते हैं

उसकी आँखों के नशे में हैं जब से डूबे
लड़-खड़ाते हैं क़दम और संभल जाते हैं

बेवफ़ाई का मुझे जब भी ख़याल आता है
अश्क़ रुख़सार पर आँखों से निकल जाते हैं

प्यार में एक ही मौसम है बहारों का मौसम
लोग मौसम की तरह फिर कैसे बदल जाते हैं

Ahmed Faraz Ghazal – चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है

चलो ये इश्क़ नहीं चाहने की आदत है
कि क्या करें हमें दू्सरे की आदत है

तू अपनी शीशा-गरी का हुनर न कर ज़ाया
मैं आईना हूँ मुझे टूटने की आदत है

मैं क्या कहूँ के मुझे सब्र क्यूँ नहीं आता
मैं क्या करूँ के तुझे देखने की आदत है

तेरे नसीब में ऐ दिल सदा की महरूमी
न वो सख़ी न तुझे माँगने की आदत है

विसाल में भी वो ही है फ़िराक़ का आलम
कि उसको नींद मुझे रत-जगे की आदत है

ये मुश्क़िलें हों तो कैसे रास्ते तय हों
मैं ना-सुबूर उसे सोचने की आदत है

ये ख़ुद-अज़ियती कब तक “फ़राज़” तू भी उसे
न याद कर कि जिसे भूलने की आदत है

Ahmed Faraz Ghazal – सामने उसके कभी उसकी सताइश नहीं की।


सामने उसके कभी उसकी सताइश नहीं की।
दिल ने चाहा भी मगर होंटों ने जुंबिश नहीं की॥

जिस क़दर उससे त’अल्लुक़ था चले जाता है,
उसका क्या रंज के जिसकी कभी ख़्वाहिश नहीं की॥

ये भी क्या कम है के दोनों का भरम क़ायम है,
उसने बख़्शिश नहीं की हमने गुज़ारिश नहीं की॥

हम के दुख ओढ के ख़िल्वत में पड़े रहते हैं,
हमने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की॥

ऐ मेरे अब्रे करम देख ये वीरानए-जाँ,
क्या किसी दश्त पे तूने कभी बारिश नहीं की॥

वो हमें भूल गया हो तो अजब क्या है फ़राज़,
हम ने भी मेल-मुलाक़ात की कोशिश नहीं की॥

Ahmed Faraz Ghazal – संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया

संग-दिल है वो तो क्यूँ उस का गिला मैंने किया
जब के ख़ुद पत्थर को बुत, बुत को ख़ुदा मैंने किया

कैसे ना-मानूस लफ़्ज़ों की कहानी था वो शख़्स
उस को कितनी मुश्क़िलों से तर्जुमा मैंने किया

वो मेरी पहली मोहब्बत ,वो मेरी पहली शिकस्त
फिर तो पैमान-ए-वफ़ा सौ मर्तबा मैंने किया

हूँ सज़ा-वार-ए-सज़ा क्यूँ जब मुक़द्दर में मेरे
जो भी उस जान-ए-जहां ने लिख दिया, मैंने किया

वो ठहरता क्या के गुज़रा तक नहीं जिसके लिए
घर तो घर हर रास्ता आरास्ता मैंने किया

मुझ पे अपना जुर्म साबित हो ना हो लेकिन ‘फ़राज़’
लोग कहते हैं के उस को बेवफ़ा मैंने किया

Ahmed Faraz Ghazal – गेसू-ए-शाम में एक सितारा एक ख़याल

गेसू-ए-शाम में एक सितारा एक ख़याल
दिल में लिए फिरते हैं तुम्हारा एक ख़याल

बाम-ए-फ़लक़ पर सूरज, चाँद, सितारे था
हम ने बेयाज़-ए-दिल पे उतारा एक ख़याल

कभी तो उन को भी देखो, जिन लोगों ने
उम्र गंवाई और संवारा एक ख़याल

याद के शहर के शोर से काले कोसों दूर
दश्त-ए-फ़रामोशी से पुकारा एक ख़याल

यूँ भी हुआ है दिल के मुक़ाबिल दुनिया थी
फिर भी ना हारा फिर भी ना हारा एक ख़याल

मुझ पर ज़राब पड़ी तो ख़ल्क़त ने देखा
मेरी बजाये पड़ा पड़ा एक ख़याल

एक मुसाफ़त, एक उदासी, एक ‘फ़राज़’
एक तमन्ना, एक शरारा, एक ख़याल

Ahmed Faraz Ghazal – ये तबियत है तो ख़ुद आज़ार बन जायेंगे हम

ये तबियत है तो ख़ुद आज़ार बन जायेंगे हम
चारागर रोयेंगे और ग़मख़्वार बन जायेंगे हम

हम सर-ए-चाक-ए-वफ़ा हैं और तेरा दस्त-ए-हुनर
जो बना देगा हमें ऐ यार बन जायेंगे हम

क्या ख़बर थी ऐ निगार-ए-शेर तेरे इश्क़ में
दिलबरान-ए-शहर के दिलदार बन जायेंगे हम

सख़्त जान हैं पर हमारी उस्तवारी पर न जा
ऐसे टूटेंगे तेरा इक़रार बन जायेंगे हम

और कुछ दिन बैठने दो कू-ए-जानाँ में हमें
रफ़्ता रफ़्ता साया-ए-दीवार बन जायेंगे हम

इस क़दर आसाँ न होगी हर किसी से दोस्ती
आश्नाई में तेरा मयार बन जायेंगे हम

मीर-ओ-ग़ालिब क्या के बन पाये नहीं फ़ैज़-ओ-फ़िराक़
ज़म ये था रूमी-ओ-अतार बन जायेंगे हम

देखने में शाख़-ए-गुल लगते हैं लेकिन देखना
दस्त-ए-गुलचीं के लिये तलवार बन जायेंगे हम

हम चिराग़ों को तो तारीकी से लड़ना है “फ़राज़”
गुल हुए पर सुबह के आसार बन जायेंगे हम

Ahmed Faraz Ghazal – यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी

यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी
वो मुसाफ़िर की जो मंजिल थे बजाये खुद भी

कितने ग़म थे की ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से की हमें याद ना आये खुद भी

ऐसा ज़ालिम की अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाये ख़ुद भी

लुत्फ़ तो जब है ताल्लुक में की वो शहर-ए-जमाल
कभी खींचे, कभी खींचता चला आये खुद भी

ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिये रंग-ए-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए खुद भी

यार से हमको तग़ाफ़ुल का गिला क्यूँ हो के हम
बारहाँ महफ़िल-ए-जानां से उठ आये खुद भी

Ahmed Faraz Ghazal – देख ये हौसला मेरा, मेरे बुज़दिल दुश्मन


देख ये हौसला मेरा, मेरे बुज़दिल दुश्मन
तुझ को लश्कर में पुकारा , तन-ए-तन्हा हो कर

उस शाह-ए-हुस्न के दर पर है फ़क़ीरों का हुज़ूम
यार हम भी ना करें अर्ज़-ए-तमन्ना जा कर

हम तुझे मना तो करते नहीं जाने से ‘फ़राज़’
जा उसी दर पे मगर, हाथ ना फैला जा कर