तुम्हारे नाम अपनी जिंदगानी इस तरह कर लें,
तेरी बाहों में शब गुजरे, पनाहों में सुबह कर लें.
नहीं बंधना हमें रस्मों-रिवाजों में, समाजों में,
खुले आकाश के पंछी बसेरा हर जगह कर लें.
इरादा, हौसला, ताक़त, मोहब्बत सब तुम्ही से है,
तू गर इक बार आ जाये तो दुनिया को फ़तेह कर लें.
दरो-दीवार पर फैली उदासी को मिटा दें हम,
हर इक शै में तबस्सुम हो, चलो ऐसी वजह कर लें.
अदावत तो है अपनी नफरतों के रहनुमाओं से,
जो दिल में दे जगह उससे भला न क्यूँ सुलह कर लें?
ख़ुदा की कद्र करता है मगर काफिर भी है “परिमल”,
कभी आओ जो महफ़िल में, इबादत पर जिरह कर लें.
– समीर परिमल